कहानी संग्रह >> मकड़ी का जाला मकड़ी का जालामधुप शर्मा
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सामाजित सरोकार पर आधारित कहानियाँ....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मधुप शर्मा निश्चित उद्देश्य को लेकर लिखते हैं। पठनीयता के विलक्षण
अवयवों के साथ-साथ, उनकी कहानियों का सर्वप्रधान गुण हैः सामाजिक सरोकार,
जो उनकी उद्देश्यपरकता का दूसरा पहलू है। उनकी भाषा में उच्छल प्रवाह है,
नए-नए शिल्पों के कगार उनके कथा-प्रवाह में स्वतः ही आ जाते हैं। वे
कथा-साहित्य के मुहावरे को प्रेमचन्द परम्परा से उठाते हैं और अद्यतन
क्षितिजों तक ले जाते हैं। मुहावरों और कहावतों के प्रयोग में वे अग्रणी
कथाकार यशपाल का स्मरण करवाते हैं, पर उनमें मताग्रह नहीं है। वे
कथा-आंदोलनों से अप्रभावित रहे हैं, इसलिए उनमें स्वाभाविकता की ताज़गी है।
सामाजिक सरोकार और किस्सागोई के जीवन्त शिल्पी
श्री मधुप शर्मा के पाँचवें कहानी-संग्रह ‘मकड़ी का
जाला’ की
भूमिका लिखने का गौरव उन्होंने मुझे प्रदान किया है, इसमें उनका मेरे
प्रति स्नेह एवं ममत्व ही प्रमुख कारण है। जिस कथाकार की भूमिकाएँ
श्रद्धेय विष्णु दा. डॉ.सी.एल. प्रभात, प्रमुख कथा-लेखिका डॉ. सूर्यबाला
और पं. आनन्दकुमार जैसी नामी-गिरामी हस्तियों ने लिखी हों, उसका ध्यान
अपेक्षाकृत अज्ञात कथा-समीक्षक और शोधकर्ताओं की ओर जाना निश्चय ही उनकी
गुणग्राहकता से अधिक ममत्त्व का परिचायक है। मैंने कथा-साहित्य के परिसर
में जो यत्किंचित कार्य किया है, यह उसी का प्रसाद है।
मधुप शर्मा एक निश्चित उद्देश्य को लेकर लिखते हैं, पठनीयता के विलक्षण अवयवों के साथ-साथ, उनकी कहानियों का सर्वप्रथम गुण है ! सामाजिक सरोकार, जो उनकी उद्देश्यपरकता का दूसरा पहलू है। उनकी भाषा में उच्छल प्रवाह है, नए-नए शिल्पों के कगार उनके कथा-प्रवाह में स्वतः ही आ जाते हैं। वे कथा-साहित्य के मुहावरे को प्रेमचन्द परम्परा से उठाते हैं और अद्यतन क्षितिजों तक ले जाते हैं। मुहावरों और कहावतों के प्रयोग में वे अग्रणी कथाकार यशपाल का स्मरण करवाते हैं, पर उनमें मताग्रह नहीं है। वे कथा-आन्दोलनों से लगभग अप्रभावित रहे हैं, इसलिए उनमें स्वाभाविकता की ताजगी है। आधुनिक बोध और उत्तर आधुनिकता-बोध की प्रतिध्वनियाँ यहाँ नहीं सुनाई देतीं, इसलिए उनके कथा-तत्त्व में सहज ऋजुता है।
प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ मूल्य-प्रतिष्ठापना का कार्य बड़ी सुघरता से सम्पन्न करती हैं : ‘मकड़ी का जाला’ में उपभोक्ता संस्कृति के दूषित प्रवाह को, पति और पुत्र की विभेदमयी जीवन-संस्कृति के माध्यम से चित्रित किया गया है। इसकी सशक्त संवाहिका बनी है पत्नी सुनीता, जिसमें चमक-दमक की ज़िन्दगी के प्रति एक प्रबल आकर्षण है, पर हाय रे दुर्भाग्य, उसका यह मोहक स्वप्न तब चकनाचूर हो गया, जब बहू रमोला उसे अप्रत्याशित रूप से बाबू जी के पास छोड़कर स्वयं उड़नछू हो गई ! सुनीता कंचन की मृगतृष्णा को मन-ही-मन समझ तो जाती है, पर डींग हाँकने में उसका भोलापन प्रकट होता है।
‘कन्हैया’ बालाश्रम का स्नेह-निर्झर है। अंजू और उसकी सहेली इसमें स्वयं भी नहा जाती हैं और माँ की गोद की कोमलता का अहसास मातृहीन बालक में जगाकर अन्नपूर्णा के गौरव को पा लेती हैं। इन अभावग्रस्त बालकों में कितनी प्रतिभा है, कितनी प्यार की प्यास है, इसे व्यवस्थापक देसाई सरीखे व्यक्ति अथवा उनकी सहधर्मिणी नीरू ही समझ सकती हैं। शहरी भेड़िए फिल्मी अन्दाज में लिखी कहानी : प्रारम्भ में पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ (देखिए : ‘मेरी माँ’) की शैली में चहकता-फड़कता वयःसन्धि का वर्णन है, सहेलियों की चुटकी भर वार्ता है और किशोरी की दिलेरी का वर्णन। फिर सरपंच की असलियत की कलई खोली गई है : किस प्रकार कल का लुटेरा और डकैत आज का सरपंच बन बैठा है, उसका बेटा प्रभाकर बाप से भी चार कदम आगे है। वह अपने साथियों के साथ चोखेलाल चिमनलाल के यहाँ डाका डालता है और उसकी पुत्री सुधा के साथ सामूहिक बलात्कार का कुकृत्य करता है। दारोगा की दुहरी भूमिका और आज की पुलिसिया प्रवृत्ति पर कथाकार का तीव्र कटाक्ष है। दामोदर की साजिश द्वारा किशोरी का एक दोहाजू एवं दुराचारी के साथ विवाह और उसके अभावग्रस्त जीवन का कारुणकि चित्र है। उसकी दुष्टों और मनचले युवकों के प्रति प्रहार-क्षमता ग्राम्य युवतियों की साहसिक चेतना का परिचय देती है। कथाकार का सामाजिक सरोकार ग्राम्य एवं नागरिक जीवन के मध्य सेतु-निर्माण करनी ही नहीं है, बल्कि दोनों ओर से प्रदूषण पर भी मार्मिक कटाक्ष करता है। कहानी में प्रेमचन्द युगीन वर्णन-विस्तार अधिक है, मानसिक चेतना न्यून है।
‘खिसियाना’ में कहानीकार को नई कहानी की हवा लग गई प्रतीत होती है। तभी तो कथा-तत्त्व न्यून और तर्क-तत्त्व अधिक है। यह निबन्धनुमा कहानी पठनीयता के क्षरण की द्योतक है, पर इसमें दो व्यक्तियों की द्वैतमयी मनोवृत्ति के विभेद पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। पिता की मौत पर मातम कम निजि-प्राप्ति चिन्तन अधिक है, गाँव जाने की जहमत और निजी सुविधाप्रियता पर कथाकार का मौन व्यंग्य मुखर है। ‘मुकुल के दादा जी’ को मैं ‘बुढ़पा’ और यौवन’ शीर्षक देने की सिफारिश करूँगा। इसमें पीढ़ियों के अन्तराल को पाटने की सार्थक कोशिश की गई है। दादा जी को युवा हृदयों की अच्छी पहचान है, वे सदय और सहानुभूतिशील हैं, कहीं-न-कहीं उनका स्वयं का युवा हृदय छलकता प्रतीत होता है। वे जो आत्मकहानी सुनाते हैं, उसमें ठेकेदारी के ठसके और गाँधीवादी मन्त्रियों का पतन उजागर होता है : सन्त्री से लगाकर मन्त्री तक सबके हिस्से बँधे हुए हैं, ऐसे में एक मासूम युवक की जीवनाकांक्षा कैसे पूर्ण हो ! ‘हत्यारा’ जैनेन्द्र के ‘अपना-पराया’ और यशपाल के ‘अस्सी बटा-सौ’ के तर्ज पर लिखी गई है, जिसमें मोटर ड्राइवर की तटस्थता और यात्रियों के परस्पर-विरोधी का अच्छा खाका खींचा गया है। जब ड्राइवर को लौटते समय ग्रामीणों द्वारा घिर जाने पर, यह पता चलता है कि उसका अपना बेटा दुर्घटना का शिकार हुआ है, तो वह बुक्का फाड़ कर रो पड़ता है !
कमतरी और अपराध-बोध के रसातल में धसकते रहने वाले अनोखेलाल की जीवन-कहानी बहु-आयामी है : एक ओर बहन की अकाल मृत्यु का गम, दूसरी ओर उसकी सासू जी का मीठा जहर, तीसरी ओर मुनीम के लगातार तकाजे और चौथी ओर दोस्त सुदेश कुमार का पतितोद्धार (?)-सब मिलकर कहानी को करुणाप्लुत रूप प्रदान करते हैं। आरक्षण का मायाजाल, सवर्णों में हीनता बोध का, आत्मग्लानि का दुस्तर अन्धकार उत्पन्न करता है और आज की समाज-संरचना पर प्रश्नचिह्न लगाता है और खोखलेपन का पर्दाफाश करता है, यही सब-कुछ ‘मैं क्या जवाब दूँगा’ में दर्शाया गया है। कथाकार का शिल्प भले ही पुराना हो, पर उसके कथ्य में सामाजिक सरोकार की दृष्टि से एक ऐसी प्राणधारा प्रवाहित हो रही है, जिसे हम झुठला नहीं सकते। अनोखेलाल के तिलमिला देने वाले मृण्यमय व्यक्तित्व पर कथाकार ऐसे प्रश्नचिह्न लगाता है कि पाठक स्तब्ध एवं विमूढ़ रह जाता है।
घटनाओं के कंकाल में से कोई प्राण-तत्त्व सहेजना सीखे तो उसे मधुप शर्मा की कहानियाँ पढ़नी होंगी। ‘प्रायश्चित’ इसका जीवित-जागृत उदाहरण है। लांसनायक रघुवीर की जीवन-कहानी उदात्तीकरण के इसी पहलू को उगजागर करती है। अपंग सन्तान का हत्यारा रघुवीर अवकास प्राप्त करने पर कोई अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी नहीं चाहता, बल्कि वह बालाश्रम में अपंग बालकों की सेवा कर अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहता है। यहाँ पुनः कथाकार का सामाजिक सरोकार मुखरित हुआ है, और उसका संदेश जीवंत है। इसे मैं प्रेमचन्द परम्परा का पुनर्जीवन मानता हूँ। ‘उखड़ा हुआ पौधा’ पारिवारिक मनोविज्ञान की दास्तान ! इसमें ससुराल से क्षुब्द एवं नाराज युवती के मानस का सुन्दर चित्रण है, जिसे धैर्यप्रणव डॉक्टर वात्सल्य स्नेह की वाग्धारा से सहला-सहलाकर असली कारण को उगलवा लेता है। सुधा जो अचानक सुसराल को छोड़ कर पीहर आ गई थी और वापस ससुराल जाने को कतई तैयार नहीं थी, उसे डॉक्टर समझा-बुझाकर, प्यार की ढाल देकर पुनः ससुराल भेजता है। और तीन माह बाद उसे सुधा का आंमत्रण मिलता है कि वे उखड़े हुए पौधे को पनपते हुए देखने को कब आ रहे हैं। लगता है प्रेमचन्द की ‘बड़े घर की बेटी’ का बीज कथाकार के अन्तश्चेतन में पड़ा हुआ था, जो परिवर्तित परिस्थितियों में नई खाद के साथ पुष्पित-पल्लवित हो उठा है। संवादों में सहजता और मनोविज्ञान का पुट है। जो कहानी को अतिरिक्त आकर्षण सौंपता है।
फ्रॉयड के मानसोपचार की अनुगूँज लिए एक सफल-सार्थक कहानी, पर पृष्ठभूमि यौन-विश्लेषण की नहीं बल्कि ललिता पवार (सास) को सही रास्ते पर लाने की है। सुधा ने अपने नाम को सार्थक करते हुए, प्यार की ढाल से सासूजी को सही राह पर लाने में सफलता पाई, कथाकार को अनेकशः बधाइयाँ ! ‘मैं हूँ न’ में मधुप शर्मा पुनः अपनी चिर-परिचित डगर पर लौट आए हैं, जहाँ पीड़ा, दुःख दर्द की राह है और दोस्त का संवेदनशील सम्बल, किन्तु वही कथा-नायिका के हाथों से फिसल जाता है ! दुर्घटनाएँ, नगरीय और महानगरीय जीवन में, आम बनती जा रही हैं, प्रतीक्षामयी दिव्या का पति समीर सामने आती हुई बस से टकराकर क्षत-विक्षत हो जाता है और दिमागी चोट के कारण अपनी चेतना खो बैठता है, वहीं अस्पताल में एक दुखियारी नर्स मिलती है जो अपनी बेटी को ऐसे ही हादसे में खो बैठी है और जिन्दगी को किसी तरह ढो रही है। दिव्या उसे आंटी कहकर अपने दुःख को शेयर करती है और देखिए विडंबना कि समीर का दोस्त प्रसान्त, जो कि दिव्या का प्रशंसक और हमदर्द था, सविता के साथ होनेवाली अपनी शादी की खबर उसे सुनाता है, तो दिव्या जो उसी को अपना भविष्य मान बैठी थी, स्तबद्ध रह जाती है। प्रशांत ही तो हर आड़े वक्त पर कहा करता था, मैं हूँ न ! इस कहानी के कथाकार की किस्सागोई की बुनावट स्पष्ट है : पारिवारिक कल्पनाएँ, आत्मालाप, अन्तश्चेतना के विभिन्न स्तर इतनी कुशलता से संयोजति हैं कि हमें शर्मा की कहानी ‘मुझे घर ले चलो’ की याद तरोताजा करा जाती है
। फर्क इतना है कि वहाँ बालक माता-पिता हैं और यहाँ पति-पत्नी, बिटिया, पड़ोसिन और एक हमदर्द मित्र है। स्वाभाविक है सहज भाषा-शैली, भावना, कल्पना और विचारों का संसार, एक दिव्य दुःख लोक का सृजन करते हैं। अस्पतालों के माहौल को चित्रित करने में कथाकार को महारत हासिल है : वह वहाँ की जीवन-प्रणाली, रुटीन तथा क्रिया-प्रतिक्रियाओं को अधिकारिकता के साथ रूपायित करता है।
मधुप शर्मा नें इस दुनिया को ’मकड़ी का जाला’ के सार्थक प्रतीक के माध्यम से देखा-परखा है। उन्होंने सामाजिक सरोकार के विविध पहलुओं को अपनी कहानियों में रूपायित किया है, वे पाठक से सीधा सम्बन्ध स्थापित करने में विश्वास करते हैं। उनकी कहानियों से कहानी की सहज धारा को परिपुष्टि मिली है।
मुझे विश्वास है कि हिन्दी जगत् इन कहानियों को रुचिपूर्वक पढ़ेगा और कथाकार के स्वप्नों, आकांक्षाओं एवं मूल्यादर्शों को अपनाकर सामाजिक क्रान्ति के स्वर मुखरित करेगा। मैं पुनः कथाकार को इस सफलता के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ।
मधुप शर्मा एक निश्चित उद्देश्य को लेकर लिखते हैं, पठनीयता के विलक्षण अवयवों के साथ-साथ, उनकी कहानियों का सर्वप्रथम गुण है ! सामाजिक सरोकार, जो उनकी उद्देश्यपरकता का दूसरा पहलू है। उनकी भाषा में उच्छल प्रवाह है, नए-नए शिल्पों के कगार उनके कथा-प्रवाह में स्वतः ही आ जाते हैं। वे कथा-साहित्य के मुहावरे को प्रेमचन्द परम्परा से उठाते हैं और अद्यतन क्षितिजों तक ले जाते हैं। मुहावरों और कहावतों के प्रयोग में वे अग्रणी कथाकार यशपाल का स्मरण करवाते हैं, पर उनमें मताग्रह नहीं है। वे कथा-आन्दोलनों से लगभग अप्रभावित रहे हैं, इसलिए उनमें स्वाभाविकता की ताजगी है। आधुनिक बोध और उत्तर आधुनिकता-बोध की प्रतिध्वनियाँ यहाँ नहीं सुनाई देतीं, इसलिए उनके कथा-तत्त्व में सहज ऋजुता है।
प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ मूल्य-प्रतिष्ठापना का कार्य बड़ी सुघरता से सम्पन्न करती हैं : ‘मकड़ी का जाला’ में उपभोक्ता संस्कृति के दूषित प्रवाह को, पति और पुत्र की विभेदमयी जीवन-संस्कृति के माध्यम से चित्रित किया गया है। इसकी सशक्त संवाहिका बनी है पत्नी सुनीता, जिसमें चमक-दमक की ज़िन्दगी के प्रति एक प्रबल आकर्षण है, पर हाय रे दुर्भाग्य, उसका यह मोहक स्वप्न तब चकनाचूर हो गया, जब बहू रमोला उसे अप्रत्याशित रूप से बाबू जी के पास छोड़कर स्वयं उड़नछू हो गई ! सुनीता कंचन की मृगतृष्णा को मन-ही-मन समझ तो जाती है, पर डींग हाँकने में उसका भोलापन प्रकट होता है।
‘कन्हैया’ बालाश्रम का स्नेह-निर्झर है। अंजू और उसकी सहेली इसमें स्वयं भी नहा जाती हैं और माँ की गोद की कोमलता का अहसास मातृहीन बालक में जगाकर अन्नपूर्णा के गौरव को पा लेती हैं। इन अभावग्रस्त बालकों में कितनी प्रतिभा है, कितनी प्यार की प्यास है, इसे व्यवस्थापक देसाई सरीखे व्यक्ति अथवा उनकी सहधर्मिणी नीरू ही समझ सकती हैं। शहरी भेड़िए फिल्मी अन्दाज में लिखी कहानी : प्रारम्भ में पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ (देखिए : ‘मेरी माँ’) की शैली में चहकता-फड़कता वयःसन्धि का वर्णन है, सहेलियों की चुटकी भर वार्ता है और किशोरी की दिलेरी का वर्णन। फिर सरपंच की असलियत की कलई खोली गई है : किस प्रकार कल का लुटेरा और डकैत आज का सरपंच बन बैठा है, उसका बेटा प्रभाकर बाप से भी चार कदम आगे है। वह अपने साथियों के साथ चोखेलाल चिमनलाल के यहाँ डाका डालता है और उसकी पुत्री सुधा के साथ सामूहिक बलात्कार का कुकृत्य करता है। दारोगा की दुहरी भूमिका और आज की पुलिसिया प्रवृत्ति पर कथाकार का तीव्र कटाक्ष है। दामोदर की साजिश द्वारा किशोरी का एक दोहाजू एवं दुराचारी के साथ विवाह और उसके अभावग्रस्त जीवन का कारुणकि चित्र है। उसकी दुष्टों और मनचले युवकों के प्रति प्रहार-क्षमता ग्राम्य युवतियों की साहसिक चेतना का परिचय देती है। कथाकार का सामाजिक सरोकार ग्राम्य एवं नागरिक जीवन के मध्य सेतु-निर्माण करनी ही नहीं है, बल्कि दोनों ओर से प्रदूषण पर भी मार्मिक कटाक्ष करता है। कहानी में प्रेमचन्द युगीन वर्णन-विस्तार अधिक है, मानसिक चेतना न्यून है।
‘खिसियाना’ में कहानीकार को नई कहानी की हवा लग गई प्रतीत होती है। तभी तो कथा-तत्त्व न्यून और तर्क-तत्त्व अधिक है। यह निबन्धनुमा कहानी पठनीयता के क्षरण की द्योतक है, पर इसमें दो व्यक्तियों की द्वैतमयी मनोवृत्ति के विभेद पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। पिता की मौत पर मातम कम निजि-प्राप्ति चिन्तन अधिक है, गाँव जाने की जहमत और निजी सुविधाप्रियता पर कथाकार का मौन व्यंग्य मुखर है। ‘मुकुल के दादा जी’ को मैं ‘बुढ़पा’ और यौवन’ शीर्षक देने की सिफारिश करूँगा। इसमें पीढ़ियों के अन्तराल को पाटने की सार्थक कोशिश की गई है। दादा जी को युवा हृदयों की अच्छी पहचान है, वे सदय और सहानुभूतिशील हैं, कहीं-न-कहीं उनका स्वयं का युवा हृदय छलकता प्रतीत होता है। वे जो आत्मकहानी सुनाते हैं, उसमें ठेकेदारी के ठसके और गाँधीवादी मन्त्रियों का पतन उजागर होता है : सन्त्री से लगाकर मन्त्री तक सबके हिस्से बँधे हुए हैं, ऐसे में एक मासूम युवक की जीवनाकांक्षा कैसे पूर्ण हो ! ‘हत्यारा’ जैनेन्द्र के ‘अपना-पराया’ और यशपाल के ‘अस्सी बटा-सौ’ के तर्ज पर लिखी गई है, जिसमें मोटर ड्राइवर की तटस्थता और यात्रियों के परस्पर-विरोधी का अच्छा खाका खींचा गया है। जब ड्राइवर को लौटते समय ग्रामीणों द्वारा घिर जाने पर, यह पता चलता है कि उसका अपना बेटा दुर्घटना का शिकार हुआ है, तो वह बुक्का फाड़ कर रो पड़ता है !
कमतरी और अपराध-बोध के रसातल में धसकते रहने वाले अनोखेलाल की जीवन-कहानी बहु-आयामी है : एक ओर बहन की अकाल मृत्यु का गम, दूसरी ओर उसकी सासू जी का मीठा जहर, तीसरी ओर मुनीम के लगातार तकाजे और चौथी ओर दोस्त सुदेश कुमार का पतितोद्धार (?)-सब मिलकर कहानी को करुणाप्लुत रूप प्रदान करते हैं। आरक्षण का मायाजाल, सवर्णों में हीनता बोध का, आत्मग्लानि का दुस्तर अन्धकार उत्पन्न करता है और आज की समाज-संरचना पर प्रश्नचिह्न लगाता है और खोखलेपन का पर्दाफाश करता है, यही सब-कुछ ‘मैं क्या जवाब दूँगा’ में दर्शाया गया है। कथाकार का शिल्प भले ही पुराना हो, पर उसके कथ्य में सामाजिक सरोकार की दृष्टि से एक ऐसी प्राणधारा प्रवाहित हो रही है, जिसे हम झुठला नहीं सकते। अनोखेलाल के तिलमिला देने वाले मृण्यमय व्यक्तित्व पर कथाकार ऐसे प्रश्नचिह्न लगाता है कि पाठक स्तब्ध एवं विमूढ़ रह जाता है।
घटनाओं के कंकाल में से कोई प्राण-तत्त्व सहेजना सीखे तो उसे मधुप शर्मा की कहानियाँ पढ़नी होंगी। ‘प्रायश्चित’ इसका जीवित-जागृत उदाहरण है। लांसनायक रघुवीर की जीवन-कहानी उदात्तीकरण के इसी पहलू को उगजागर करती है। अपंग सन्तान का हत्यारा रघुवीर अवकास प्राप्त करने पर कोई अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी नहीं चाहता, बल्कि वह बालाश्रम में अपंग बालकों की सेवा कर अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहता है। यहाँ पुनः कथाकार का सामाजिक सरोकार मुखरित हुआ है, और उसका संदेश जीवंत है। इसे मैं प्रेमचन्द परम्परा का पुनर्जीवन मानता हूँ। ‘उखड़ा हुआ पौधा’ पारिवारिक मनोविज्ञान की दास्तान ! इसमें ससुराल से क्षुब्द एवं नाराज युवती के मानस का सुन्दर चित्रण है, जिसे धैर्यप्रणव डॉक्टर वात्सल्य स्नेह की वाग्धारा से सहला-सहलाकर असली कारण को उगलवा लेता है। सुधा जो अचानक सुसराल को छोड़ कर पीहर आ गई थी और वापस ससुराल जाने को कतई तैयार नहीं थी, उसे डॉक्टर समझा-बुझाकर, प्यार की ढाल देकर पुनः ससुराल भेजता है। और तीन माह बाद उसे सुधा का आंमत्रण मिलता है कि वे उखड़े हुए पौधे को पनपते हुए देखने को कब आ रहे हैं। लगता है प्रेमचन्द की ‘बड़े घर की बेटी’ का बीज कथाकार के अन्तश्चेतन में पड़ा हुआ था, जो परिवर्तित परिस्थितियों में नई खाद के साथ पुष्पित-पल्लवित हो उठा है। संवादों में सहजता और मनोविज्ञान का पुट है। जो कहानी को अतिरिक्त आकर्षण सौंपता है।
फ्रॉयड के मानसोपचार की अनुगूँज लिए एक सफल-सार्थक कहानी, पर पृष्ठभूमि यौन-विश्लेषण की नहीं बल्कि ललिता पवार (सास) को सही रास्ते पर लाने की है। सुधा ने अपने नाम को सार्थक करते हुए, प्यार की ढाल से सासूजी को सही राह पर लाने में सफलता पाई, कथाकार को अनेकशः बधाइयाँ ! ‘मैं हूँ न’ में मधुप शर्मा पुनः अपनी चिर-परिचित डगर पर लौट आए हैं, जहाँ पीड़ा, दुःख दर्द की राह है और दोस्त का संवेदनशील सम्बल, किन्तु वही कथा-नायिका के हाथों से फिसल जाता है ! दुर्घटनाएँ, नगरीय और महानगरीय जीवन में, आम बनती जा रही हैं, प्रतीक्षामयी दिव्या का पति समीर सामने आती हुई बस से टकराकर क्षत-विक्षत हो जाता है और दिमागी चोट के कारण अपनी चेतना खो बैठता है, वहीं अस्पताल में एक दुखियारी नर्स मिलती है जो अपनी बेटी को ऐसे ही हादसे में खो बैठी है और जिन्दगी को किसी तरह ढो रही है। दिव्या उसे आंटी कहकर अपने दुःख को शेयर करती है और देखिए विडंबना कि समीर का दोस्त प्रसान्त, जो कि दिव्या का प्रशंसक और हमदर्द था, सविता के साथ होनेवाली अपनी शादी की खबर उसे सुनाता है, तो दिव्या जो उसी को अपना भविष्य मान बैठी थी, स्तबद्ध रह जाती है। प्रशांत ही तो हर आड़े वक्त पर कहा करता था, मैं हूँ न ! इस कहानी के कथाकार की किस्सागोई की बुनावट स्पष्ट है : पारिवारिक कल्पनाएँ, आत्मालाप, अन्तश्चेतना के विभिन्न स्तर इतनी कुशलता से संयोजति हैं कि हमें शर्मा की कहानी ‘मुझे घर ले चलो’ की याद तरोताजा करा जाती है
। फर्क इतना है कि वहाँ बालक माता-पिता हैं और यहाँ पति-पत्नी, बिटिया, पड़ोसिन और एक हमदर्द मित्र है। स्वाभाविक है सहज भाषा-शैली, भावना, कल्पना और विचारों का संसार, एक दिव्य दुःख लोक का सृजन करते हैं। अस्पतालों के माहौल को चित्रित करने में कथाकार को महारत हासिल है : वह वहाँ की जीवन-प्रणाली, रुटीन तथा क्रिया-प्रतिक्रियाओं को अधिकारिकता के साथ रूपायित करता है।
मधुप शर्मा नें इस दुनिया को ’मकड़ी का जाला’ के सार्थक प्रतीक के माध्यम से देखा-परखा है। उन्होंने सामाजिक सरोकार के विविध पहलुओं को अपनी कहानियों में रूपायित किया है, वे पाठक से सीधा सम्बन्ध स्थापित करने में विश्वास करते हैं। उनकी कहानियों से कहानी की सहज धारा को परिपुष्टि मिली है।
मुझे विश्वास है कि हिन्दी जगत् इन कहानियों को रुचिपूर्वक पढ़ेगा और कथाकार के स्वप्नों, आकांक्षाओं एवं मूल्यादर्शों को अपनाकर सामाजिक क्रान्ति के स्वर मुखरित करेगा। मैं पुनः कथाकार को इस सफलता के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ।
डॉ. लक्ष्मीकान्त शर्मा
मुझे भी कुछ कहना है।
कस्तूरी कहाँ जानती है कि उसकी गंध कहाँ-कहाँ पहुँचती है, और किस-किस को
विमुग्ध करती है।
विद्वान भी इस बात का हिसाब कहाँ रखते हैं कि उनके ज्ञान की प्रकाश कौन-कौन से अँधेरे कोनों को अवलोकित कर रहा है।
भाई लक्ष्मीकान्त जी भी शायद यह नहीं जानते कि जब वे अपनी मौन साधना में लगे हुए थे, तब उच्च कोटि के कथा-समीक्षक और शोधकर्ता के रूप में उनकी ख्याति अजमेर से चलकर बम्बई पहुँच चुकी थी। और तभी मैं अपना मन बना चुका था कि अपने अगले कहानी-संग्रह की भूमिका लिखने के लिए, उन्हीं से निवेदन करूँगा। तब तक तो मैं कथा-क्षेत्र में उनकी गहरी पैठ और रचना की आत्मा तक पहुँने की उनकी अद्भुत क्षमता से ही परिचित था। उनके प्रति स्नेह और ममत्व की भावना तो बहुत बाद में पैदा हुई।
भूमिका के सिलसिले में, मेरी गुणग्राहकता की अपेक्षा मेरे ममत्व को श्रेय देना, भाई लक्ष्मीकान्त जी की विनम्रता और शालीनता की ही परिचायक है। बहुत ही सौम्य स्वभाव के धनी होने के कारण उनसे यही अपेक्षा की जा सकती थी। लेकिन कहानियाँ पढ़ने के बाद मेरे संवेदनशील पाठक यह बखूबी जान जाएँगे कि भाई लक्ष्मीकान्त जी की भूमिका कितनी सजीव और सटीक है।
बात अब चूँकि ममत्व की भी है, धन्यवाद या आभार जैसे शब्द इस्तेमाल करके उसकी गरिमा को कम नहीं करूँगा। बहरहाल इतना तो कह ही सकता हूँ कि मेरी इस पुस्तक के साथ उनके नाम का जुड़ना मेरे लिए गौरव की बात है।
विद्वान भी इस बात का हिसाब कहाँ रखते हैं कि उनके ज्ञान की प्रकाश कौन-कौन से अँधेरे कोनों को अवलोकित कर रहा है।
भाई लक्ष्मीकान्त जी भी शायद यह नहीं जानते कि जब वे अपनी मौन साधना में लगे हुए थे, तब उच्च कोटि के कथा-समीक्षक और शोधकर्ता के रूप में उनकी ख्याति अजमेर से चलकर बम्बई पहुँच चुकी थी। और तभी मैं अपना मन बना चुका था कि अपने अगले कहानी-संग्रह की भूमिका लिखने के लिए, उन्हीं से निवेदन करूँगा। तब तक तो मैं कथा-क्षेत्र में उनकी गहरी पैठ और रचना की आत्मा तक पहुँने की उनकी अद्भुत क्षमता से ही परिचित था। उनके प्रति स्नेह और ममत्व की भावना तो बहुत बाद में पैदा हुई।
भूमिका के सिलसिले में, मेरी गुणग्राहकता की अपेक्षा मेरे ममत्व को श्रेय देना, भाई लक्ष्मीकान्त जी की विनम्रता और शालीनता की ही परिचायक है। बहुत ही सौम्य स्वभाव के धनी होने के कारण उनसे यही अपेक्षा की जा सकती थी। लेकिन कहानियाँ पढ़ने के बाद मेरे संवेदनशील पाठक यह बखूबी जान जाएँगे कि भाई लक्ष्मीकान्त जी की भूमिका कितनी सजीव और सटीक है।
बात अब चूँकि ममत्व की भी है, धन्यवाद या आभार जैसे शब्द इस्तेमाल करके उसकी गरिमा को कम नहीं करूँगा। बहरहाल इतना तो कह ही सकता हूँ कि मेरी इस पुस्तक के साथ उनके नाम का जुड़ना मेरे लिए गौरव की बात है।
मधुप शर्मा
पुष्पा कॉलोनी
मालाड (पूर्व)
मुम्बई-400097
दूरभाष-8891609
मालाड (पूर्व)
मुम्बई-400097
दूरभाष-8891609
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